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स इत्स्वपा॒ भुव॑नेष्वास॒ य इ॒मे द्यावा॑पृथि॒वी ज॒जान॑। उ॒र्वी ग॑भी॒रे रज॑सी सु॒मेके॑ अवं॒शे धीरः॒ शच्या॒ समै॑रत् ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa it svapā bhuvaneṣv āsa ya ime dyāvāpṛthivī jajāna | urvī gabhīre rajasī sumeke avaṁśe dhīraḥ śacyā sam airat ||

पद पाठ

सः। इत्। सु॒ऽअपाः॑। भुव॑नेषु। आ॒स॒। यः। इ॒मे इति॑। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। ज॒जान॑। उ॒र्वी । ग॒भी॒रे इति॑। रज॑सी॒ । सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑। अ॒वं॒शे। धीरः॑। शच्या॑। सम्। ऐ॒र॒त् ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:56» मन्त्र:3 | अष्टक:3» अध्याय:8» वर्ग:8» मन्त्र:3 | मण्डल:4» अनुवाक:5» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! आप लोगों को (यः) जो (स्वपाः) श्रेष्ठ कर्म्मों से युक्त (धीरः) धीर जगदीश्वर (भुवनेषु) लोकों में (आस) विद्यमान है (इमे) इन (उर्वी) बहुत पदार्थों से युक्त (गभीरे) गाम्भीर्य्य आदि गुणसहित (रजसी) रजोवृन्दों से बनाये गये (सुमेके) एक हुए अर्थात् परस्पर सम्बन्धयुक्त (अवंशे) वंश अर्थात् उत्पत्तिक्रम से आगे को रहित और अन्तरिक्ष में स्थित (द्यावापृथिवी) सूर्य्य और भूमि को (जजान) उत्पन्न किया (शच्या) बुद्धि से (सम्, ऐरत्) कम्पाता अर्थात् क्रम से अनुकूल चलाता है (सः, इत्) वही सदा उपासना करने योग्य है ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर ने असङ्ख्य भूमि आदि लोक आकाश में रचे और व्यवस्था से चलाये हैं, वह सदा ही उपासना करने योग्य है ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! युष्माभिर्यः स्वपा धीरो जगदीश्वरो भुवनेष्वासेमे उर्वी गभीरे रजसी सुमेके अवंशे द्यावापृथिवी जजान शच्या समैरत्स इदेव सदोपासनीयोऽस्ति ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (इत्) एव (स्वपाः) शोभानान्यपांसि कर्माणि यस्य सः (भुवनेषु) लोकेषु (आस) आस्ते (यः) (इमे) (द्यावापृथिवी) सूर्य्यभूमी (जजान) उत्पादितवान् (उर्वी) बहुपदार्थयुक्ते (गभीरे) गाम्भीर्यादिगुणसहिते (रजसी) रजोभिर्निर्मिते (सुमेके) एकीभूते सम्बद्धे (अवंशे) अविद्यमानो वंशो ययोस्ते अन्तरिक्षस्थे (धीरः) (शच्या) प्रज्ञया (सम्) (ऐरत्) कम्पयति यथाक्रमं चालयति ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! येन जगदीश्वरेणऽसङ्ख्या भूमयश्चाकाशे निर्मिता व्यवस्थया चाल्यन्ते स एव सदैव भजनीयः ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्या जगदीश्वराने असंख्य भूमी इत्यादी लोक आकाशात निर्माण केलेले आहे व व्यवस्थापन केलेले आहे, तो सदैव उपासनीय आहे. ॥ ३ ॥